उषाकिरण मिथिला मंजरी


 


उषाकिरणखान के साहित्य में अगजग-जगमग मिथिला है। मिथिला के दलित, मुस्लिम, सवर्ण, पिछड़े, रंगों से भरी सुहागमती स्त्रियां हैं। मिथिला का गीत-संगीत, तिलकोर का तरुआ और पुरइन के पत्ते हैं। माछ-मखान है।


विकास कुमार झा


 


हिन्दी-मैथिली की सुप्रसिद्ध लेखिका उषाकिरण खान को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से बहुप्रतिष्ठित 'भारत-भारती सम्मान' दिये जाने की घोषणा हुई है। साहित्य अकादेमी और पद्मश्री से सम्मानित उषाकिरण खान को भारत-भारती' साहित्य की सुदीर्घ और अविरल साधना का सम्मान है... विकास कुमार झा गला साहित्य में दो विभूतिभूषण हुए। एक 'पथेर पांचाली', 'अपूर संसार' और 'अपराजितो' सरीखी अनेक कालजयी कृतियों के लेखक विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय और दूसरे 'स्वर्गादपि गरीयसी', 'नीलांगुरीय', 'रानू', 'जात्रा-जयेजात्रा' और 'कुशी प्रांगणेर चिट्ठी' जैसी क्लासिक कृतियों के रचयिता विभूतिभूषण मुखोपाध्याय। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने जिस तरह बंगाल और सिंहभूम के जीवन को अपने साहित्य में अमर कर दिया, विभूतिभूषण मुखोपाध्याय ने अपनी जन्मभूमि मिथिला को अपनी समस्त रचनाओं में अमर कर दिया। विभूतिभूषण मुखोपाध्याय के साहित्य से ही विशाल और जागरूक बंगलाभाषी पाठकों ने मिथिला के दुख-सुख के संग मिथिला की मधुरिमा को जाना। मिथिला में जन्मे विभूतिभूषण जीवनपर्यन्त मिथिला के प्रमुख नगर दरभंगा में रहे। जनकवि नागार्जुन और विभूतिभूषण मुखोपाध्याय समकालीन थे। नागार्जुन ने मैथिली में विपुल लेखन किया ही, संग-संग हिन्दी में भी वृहद रूप से उन्होंने लिखा। कुछ ऐसा ही राजकमल चौधरी ने भी किया। हिन्दी व मैथिली में राजकमल चौधरी का अवदान अविस्मरणीय है। नागार्जुन और राजकमल चौधरी को यह श्रेय जाता है कि उनकी हिन्दी रचनाओं के जरिये भारत के विशाल हिन्दी पाठक समाज को मिथिला के रम्य जीवन का अंतरंग प्रेमिल परिचय मिला। हालांकि, कथा-गुरु फणीश्वरनाथ रेणु मिथिलांचल के और मैथिलीभाषी लेकिन मैथिली में उन्होंने नहीं के बराबर ही लिखा। फिर भी, बिहार के मैथिलीभाषी पूर्णिया अंचल के पोर-पोर से उन्होंने हिन्दीभाषी पाठकों को ओतप्रोत कर दिया। जनकवि नागार्जुन और राजकमल चौधरी ने हिन्दी व मैथिली में समान अनुराग से लेखन की विरल परम्परा निर्मित की, उस स्वर्णिम विरासत हिन्दी-मैथिली की समर्थ रचनाकार  उषाकिरणखानखान ने अद्भुत भावप्रवणता से लगातार विस्तार दिया। हिन्दी में प्रकाशित उनका अत्यंत महत्वपूर्ण उपन्यास 'सिरजनहार' महाकवि विद्यापति के जीवन पर ही है। उषाकिरण खान की कथाभूमि मुख्यरूप से मिथिला है और यही वजह है कि चाहे उनका उपन्यास 'हसीना मंजिल' हो या 'भामती' याकि कहानी-संग्रह 'दूब-धान'- सबमें मिथिला के जीवन, सुख-दुख और नेह-छोह की कहानी कही गयी है। उषाकिरण खान ने न सिर्फ़ मिथिला के वर्तमान जीवन-जगत की कहानी लिखी है, बल्कि इतिहास की धूल में पड़ी 'भामती' सरीखी मिथिला की उज्ज्वल स्त्री-पात्रों की गाथा से नयी पीढ़ी को सुपरिचित कराया है। अतीत में गुम मिथिला के कई पात्रों को उन्होंने रंगमंच के माध्यम से भी नवजीवन दिया है। इस तरह उन्होंने विद्यापति से लकर भामती तक की सुधि ली है। मिथिलांचल में लहठी-चूड़ी बनाने वाली निर्धन मुस्लिम स्त्रियों की भी कथा कही है। और इस तरह हिन्दी व मैथिली में उनका साहित्य भारत-भारती की कथा से परिपूर्ण-पूरित है। जीवन के 75वें वर्ष में उन्हें 'भारत-भारती' सम्मान मिलना एक सुदीर्घ साहित्य साधना को सम्मान है। उषाकिरण खान के साहित्य में अगजग-जगमग मिथिला है। मिथिला के दलित, मुस्लिम, सवर्ण, पिछड़े, रंगों से भरी सुहागमती स्त्रियां हैं। मिथिला का गीत-संगीत, तिलकोर का तरुआ और पुरइन के पत्ते हैं। माछ-मखान है। उनके कहन की एक बानगी देखिये उनकी एक कहानी 'बम महादेव' की इन कुछ पंक्तियों में -'आज तो मजलिस यहीं जमी। अब सब अपने-अपने घर की ओर चले गये। रसूल मियां की सिर्फ एक दादी थी, न मां न बाप। एक बड़ी बहन थी, सो ब्याह कर ससुराल चली गयी। समय बीतता चला गया। रघुनाथ बाबू बी.ए. की परीक्षा देकर बुआ के गांव गये थे। रामजी केवट का विवाह, द्विरागमन हो चुका था। रघुनाथ बाबू उसके आंगन गये थे। रामजी की कनियां ने चूंघट न उठाया पर चुपचाप पीछे से एक बाल्टी आलतई रंग घोलकर नहा ज़रूर दिया था। सांध्यकालीन बैठक में रामजी और रसूल ने रघुनाथ से कहा- 'मछली फंसाने के लिए बांस का बाड़ा लगा रहे थे कि पैर में कुछ ठोस वस्तु टकराया।खोद कर निकाला तो मूर्ति निकली।हमने उसे वहीं दबा दिया है। जान पड़ता है कि शिवलिंग है।' उषाकिरण खान की समस्त कृति पर अगर मात्र एक-दो शब्दों में टिप्पणी करनी हो, तो बरबस यही होगा- 'मिथिला मंजरी'।