सवा तीन साल में पूरी होती है नर्मदा परिक्रमा


नर्मदा विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है . प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है . यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी .व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं .आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है . एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं.नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं. जिनकी महत्ता परिक्रमा वासी तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं. श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं. परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है.नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं .इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ''सौंदर्य की नदी'' नर्मदा तथा ''अमृतस्य नर्मदा'' नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है .दोनों पुस्तकें नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है . नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक 'अमरकण्टक से अमरकण्टक तक'भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है .


नर्मदा


प्रभा साक्षी अखबार में कमल सिंधी के लेख के मुताबिक ,यह एकमात्र ऐसी नदी है जिसका पुराण है। यह एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है। बड़े-बड़े ऋषि मुनि नर्मदा के तटों पर गुप्त तप करते हैं।

 

-मान्यता है कि एक बार क्रोध में आकर इन्होंने अपनी दिशा परिवर्तित कर ली और चिरकाल तक अकेले ही बहने का निर्णय लिया। ये अन्य नदियों की तुलना में विपरीत दिशा में बहती हैं। इनके इस अखंड निर्णय की वजह से ही इन्हें चिरकुंआरी कहा जाता है। यहां हम आपको नर्मदा मैया से जुड़े कुछ ऐसे तथ्यों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनके बारे में साधारणतः जानना संभव नहीं होता।

 

-पुराणों में ऐसा बताया गया है कि इनका जन्म एक 12 वर्ष की कन्या के रूप में हुआ था। समुद्र मंथन के बाद भगवान शिव के पसीने की एक बूंद धरती पर गिरी जिससे मां नर्मदा प्रकट हो गईं। इसी वजह से इन्हें शिवसुता भी कहा जाता है।

 

-चिरकुंआरी मां नर्मदा के बारे में कहा जाता है कि चिरकाल तक मां नर्मदा को संसार में रहने का वरदान है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव ने मां रेवा को वरदान दिया था कि प्रलयकाल में भी तुम्हारा अंत नहीं होगा। अपने निर्मल जल से तुम युगों-युगों तक इस समस्त संसार का कल्याण करोगी।

 

-मध्य प्रदेश के खूबसूरत स्थल अमरकंटक अनूपपुर से मां नर्मदा का उद्गम स्थल है। यहां ये एक छोटी-सी धार से प्रारंभ होकर आगे बढ़ते हुए विशाल रूप धारण कर लेती हैं।

 

-यह स्थान अद्भुत दृश्यों के लिए भी जाना जाता है। इसी जगह पर मां रेवा का विवाह मंडप आज भी देखने मिलता है। पुराणों के अनुसार अपने प्रेमी सोनभद्र से क्रोधित होकर ही इन्होंने उल्टा बहने का निर्णय लिया और गुस्से में अपनी दिशा परिवर्तित कर ली।

 

-सोनभद्र और सखी जोहिला ने बाद में इनसे क्षमा भी मांगी, किंतु तब तक नर्मदा दूर तक बह चुकी थी। अपनी सखी के विश्वास को खंडित करने की वजह से ही जोहिला को पूज्यनीय नदियों में स्थान नहीं दिया गया है। सोन नदी या नद सोनभद्र का उद्गम स्थल भी अमरकंटक ही है।

 

-वैसे तो मां नर्मदा को लेकर अनेक मान्यताएं हैं लेकिन ऐसा बताया जाता है कि जो भी भक्त पूरी निष्ठा के साथ इनकी पूजा व दर्शन करते हैं उन्हें ये जीवनकाल में एक बार दर्शन अवश्य देती हैं।

 

-जिस प्रकार गंगा में स्नान का पुण्य है उसी प्रकार नर्मदा के दर्शन मात्र से मनुष्य के कष्टों का अंत हो जाता है।

 

-अन्य नदियों से विपरीत नर्मदा से निकले हुए पत्थरों को शिव का रूप माना जाता है। ये स्वयं प्राणप्रतिष्ठित होते हैं अर्थात् नर्मदा के पत्थरों को प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नहीं होती। इसी कारण देश में ही नहीं विदेशों में भी नर्मदा से निकले हुए पत्थरों की शिवलिंग के रूप में सर्वाधिक मान्यता है।

 

-ऐसी पुरातन मान्यता है कि गंगा स्वयं प्रत्येक साल नर्मदा से भेंट एवं स्नान करने आती हैं। मां नर्मदा को मां गंगा से भी अधिक पवित्र माना गया है कहा जाता है कि इसी वजह से गंगा हर साल स्वयं को पवित्र करने नर्मदा के पास पहुंचती हैं। यह दिन गंगा दशहरा का माना जाता है।

निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा


परिक्रमा करना कोई आसान नहीं होता पूरे आस्था - विश्वास  के साथ धैर्य पूर्वक  यात्रा करनी होती है। 

परिक्रमावासी लगभग 1,312 किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं. श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा की जानकारी हेतु तीर्थस्थलों पर कई पुस्तिकाएं मिलती हैं.नर्मदाजी वैराग्य की अधिष्ठात्री मूर्तिमान स्वरूप है. गंगाजी ज्ञान की, यमुनाजी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वतीजी विवेक के प्रतिष्ठान के लिए संसार में आई हैं. सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है. मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है. यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है. प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है.

 

परिक्रमावासियों के सामान्य नियम

1. प्रतिदिन नर्मदाजी में स्नान करेंजलपान भी रेवा जल का ही करें।

2. प्रदक्षिणा में दान ग्रहण न करें। श्रद्धापूर्वक कोई भोजन  करावे तो कर लें क्योंकि आतिथ्य सत्कार का अंगीकार करना तीर्थयात्री का धर्म है। त्यागी, विरक्त संत तो भोजन ही नहीं करते भिक्षा करते हैं जो अमृत सदृश्य मानी जाती है।

3. व्यर्थ वाद-विवाद, पराई निदा, चुगली न करें। वाणी का संयम बनाए रखें। सदा सत्यवादी रहें।

4. कायिक तप भी सदा अपनाए रहें- देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ पूजनं, शौच, मार्जनाम्। ब्रह्मचर्य, अहिसा च शरीर तप उच्यते।।

5. मनः प्रसादः सौम्य त्वं मौनमात्म विनिग्रह। भव संशुद्धिरित्येतत् मानस तप उच्यते।। (गीता 17वां अध्याय) श्रीमद्वगवतगीता का त्रिविध तप आजीवन मानव मात्र को ग्रहण करना चाहिए। एतदर्थ परिक्रमा वासियों को प्रतिदिन गीता, रामायणादि का पाठ भी करते रहना उचित है।

6. परिक्रमा आरंभ् करने के पूर्व नर्मदाजी में संकल्प करें। माई की कडाही याने हलुआ जैसा प्रसाद बनाकर कन्याओं, साधु तथा अतिथि अभ्यागतों को यथाशक्ति भेजन करावे।

7. दक्षिण तट की प्रदक्षिणा नर्मदा तट से 5 मील से अधिक दूर और उत्तर तट की प्रदक्षिणा साढ़े सात मील से अधिक दूर से नहीं करना चाहिए।

8. कहीं भी नर्मदा जी को पार न करें। जहां नर्मदा जी में टापू हो गए वहां भी न जावें, किन्तु जो सहायक नदियां हैं, नर्मजा जी में आकर मिलती हैं, उन्हें भी पार करना आवश्यक हो तो केवल एक बार ही पार करें।

9. चतुर्मास में परिक्रमा न करें। देवशयनी आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक सभी गृहस्थ चतुर्मास मानते हैं। मासत्मासे वैपक्षः की बात को लेकर चार पक्षों का सन्यासी यति प्रायः करते हैं। नर्मदा प्रदक्षिणा वासी विजयादशी तक दशहरा पर्यन्त तीन मास का भी कर लेते हैं। उस समय मैया की कढाई यथाशक्ति करें। कोई-कोई प्रारम्भ् में भी करके प्रसन्न रहते हैं।

10. बहुत सामग्री साथ लेकर न चलें। थोडे हल्के बर्तन तथा थाली कटोरी आदि रखें। सीधा सामान भी एक दो बार पाने योग्य साथ रख लें।

11. बाल न कटवाएं। नख भी बारंबार न कटावें। वानप्रस्थी का व्रत लें, ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करें। सदाचार अपनायें रहें। श्रृंगार की दृष्टि से तेल आदि कभी न लगावें। साबुन का प्रयोग न करें। शुद्ध मिट्टी का सदा उपयोग करें।

12. परिक्रमा अमरकंटन से प्रारंभ् कर अमरकंटक में ही समाप्त होनी चाहिए। जब परिक्रमा परिपूर्ण हो जाये तब किसी भी एक स्थान पर जाकर भ्गवान शंकरजी का अभिषेक कर जल चढ़ावें। पूजाभिषेक करें कराएं। मुण्डनादि कराकर विधिवत् पुनः स्नानादि, नर्मदा मैया की कढाई उत्साह और सामर्थ्य के अनुसार करें। श्रेष्ठ ब्राह्मण, साधु, अभ्यागतों को, कन्याओं को भी भेजन अवश्य कराएं फिर आशीर्वाद ग्रहण करके संकल्प निवृत्त हो जाएं और अंत में नर्मदाजी की विनती करें।